2016-12-27

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वैश्विक स्तर पर विभिन्न भाषाओं की प्रभावशीलता से संबंधित "Power Language Index" नाम से जारी एक हालिया शोध के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की वैश्विक स्थिति और हकीक़त से रूबरू कराता एक विश्लेषणात्कम लेख।
अभी हाल ही में एक खबर आयी थी वैश्विक स्तर पर दुनिया की सर्वाधिक प्रभावशाली 124 भाषाओं में हिंदी का 10वां स्थान है। इसमें यदि हिंदी की बोलियों और उर्दू को भी मिला दिया जाए तो यह स्थान आठवां हो जाएगा और इस तरह इस सूची में कुल 113 भाषाएं रह जाएगीं। इस खबर से सभी हिंदी प्रेमियों में उत्साह का माहौल है। भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान INSEAD के प्रतिष्ठित फेलो, Dr. Kai L. Chan द्वारा मई, 2016 में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।


इस पावर लैंग्वेज इन्डेक्स का अध्ययन करने पर चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों को हिंदी से अलग दर्शाया गया है। 113 भाषाओं की इस सूची में हिंदी की भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी बोलियों को अलग स्थान दिया गया है। इससे पहले वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में भी हिंदी को इसकी बोलियों से अलग दिखाया गया था, जिसका भारत में भारी विरोध भी हुआ था। “अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित करके देखे जाने का सिलसिला रूक नहीं रहा है। यह जानबूझ कर हिंदी को कमजोर करके दर्शाने का षड़यंत्र है और ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषाओं की तालिका के अनुसार, यदि हिंदी की सभी बालियों को शामिल कर लिया जाए तो हिंदी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से विश्व में दूसरा स्थान दिया गया हैं। परन्तु पावर लैंग्वेज इंडेक्स में यह भाषा आठवें स्थान पर है। वहीं इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान प्राप्त है।”
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता के क्रम निर्धारण में भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया व ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव को ध्यान में रखकर अध्ययन किया गया है। जिन पांच कारकों के आधार पर ये इंडेक्स तैयार किया गया है, उनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यदि हिंदी से उसकी उपर्युक्त बोलियों को निकाल दिया जाए तो इसका भौगोलिक क्षेत्र बहुत सीमित हो जाएगा। भौगोलिक कारक में संबंधित भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार को सम्मिलित किया गया है। हिंदी की लोकप्रिय बोलियों को उससे अलग दिखाने पर इन तीनों के आंकड़ों में निश्चित तौर पर कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में 10 वां स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र का प्रयोग करते हुए, यदि हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषाभाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना की जाए तो यह स्थान निश्चित तौर पर शीर्ष पांच में आ जाएगा।
इन्डेक्स का दूसरा महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता है। इसके अंतर्गत भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव का अध्ययन किया गया है। इसमें हिंदी को 12वां स्थान दिया गया है। इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक है संचार, यानी लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का कितना इस्तेमाल हो रहा है। इंडेक्स का चौथा कारक अत्यंत महत्वपूर्ण है, मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल। इसके अंतर्गत भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है। विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की वेशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। जहां इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता 95 प्रतिशत तक है, वहीं हिंदी की उपलब्धता मात्र 0.04 प्रतिशत है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल 9 भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को  प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी 104 भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान स्थान (10 वां स्थान) दिया गया है, यानी कि सभी कम प्रभावशाली हैं। यहों एक बात उल्लेखनीय है, जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक इसे कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही शामिल किया जाता रहेगा।


उपर्युक्त पावर लैंग्वेज इंडेक्स को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि विश्व भर में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करके देखने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के बहुत सारे रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है। वैसे भारत के भीतर भी तो हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश रही हैं और लगातार अपना संघर्ष तेज कर रही हैं। हिंदी की बोलियों की इसी आपसी फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषाओं द्वारा उठाया जा रहा है। आज आवश्यकता है हिंदी विरोधी इन गतिविधियों का डटकर विरोध किया जाए और इसके लिए सर्वप्रथम हमें हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद करना होगा तथा सभी देशवासियों को अपने पद व हैसियत के अनुसार हिंदी की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा। अंततः हमारी अपनी भाषा के प्रति जागरूक होने की जिम्मेदारी भी तो हमारी अपनी ही है।

यह लेख कोल इंडिया लिमिटेड की अनुषंगी कंपनी, भारत कोकिंग कोल लिमिटेड, धनबाद में सहायक प्रबंधक (राजभाषा) के पद कार्यरत श्री दिलीप कुमार सिंह जी द्वारा लिखा गया है। आप श्री दिलीप जी से उनके Facebook वाल या Google+ के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं।

नोट: आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। Hindi e-Tools || हिंदी ई-टूल्स का इनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।

2016-12-23

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जब मैंने होश संभाला तो देश में हिंदी के विरोध और समर्थन दोनों का मिला-जुला माहौल था। एक बड़ी संख्या में लोग हिंदी प्रेमी थे, जो लोगों से हिंदी अपनाने की अपील किया करते थे। वहीं दक्षिण भारत के राज्यों, खासकर तमिलनाडु में हिंदी के प्रति हिंसक विरोध की खबरें भी जब-तब सुनने-पढ़ने को मिला करती थीं। हालांकि, काफी प्रयास के बावजूद उस समय इसकी वजह मेरी समझ में नहीं आती थी।

संयोगवश 80 के दशक के मध्य में तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में जाने का मौका मिला, तो मुझे लगा कि राजनीति को छोड़ भी दें तो भी यहां के लोगों की हिंदी के प्रति समझ बहुत ही कम है। तब वहां बहुत कम ही लोग ऐसे हुआ करते थे जो टूटी-फूटी हिंदी में किसी सवाल का जवाब दे पाते थे। ज्यादातर ‘नो हिंदी...’ कह कर आगे बढ़ जाते। चूंकि मेरा ताल्लुक रेलवे से है, लिहाजा इसके दफ्तरों में टंगे बोर्डों पर “हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, इसे अपनाइए... दूसरों को भी हिंदी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें” जैसे वाक्य बरबस ही मेरा ध्यान आकर्षित करते थे। सितंबर महीने में शहर के विभिन्न भागों में हिंदी दिवस पर अनेक कार्यक्रम भी होते थे। जिसमें राष्ट्रभाषा के महत्व और इसकी उपयोगिता पर लंबा-चौड़ा व्याख्यान प्रस्तुत किया जाता। हिंदी में बेहतर करने वाले पुरस्कृत भी होते। लेकिन, वाईटूके यानी 21 वीं सदी की शुरूआत से माहौल में तेजी से बदलाव होने लगा। हिंदी फिल्में तो पहले भी लोकप्रिय थी ही, 2004 तक मोबाइल की पहुंच आम आदमी तक हो गई। फिर शुरू हुआ मोबाइल पर रिंगटोन व डायलर टोन लगाने का दौर। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य होता कि ज्यादातर हिंदीतर भाषियों के ऐसे टोन पर हिंदी गाने सजे होते थे। वहीं बड़ी संख्या में हिंदी भाषी अपने मोबाइल पर बांग्ला अथवा दूसरी भाषाओं के गाने रिंग या डायलर टोन के तौर पर लगाते।

इस दौर में एक बार फिर से यात्रा का संयोग बनने पर मैंने महसूस किया कि अब माहौल तेजी से बदल चुका है। देश के किसी भी कोने में हिंदी बोली और समझी जाने लगी है। और तो और आगंतुक को हिंदी भाषी जानते ही सामने वाला हिंदी में बातचीत शुरू कर देता है। 2007 तक वैश्वीकरण और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ने पर छोटे शहरों व कस्बों तक में शापिंग मॉल व बड़े-बड़े ब्रांडों के शोरुम खुलने लगे, तो मैंने पाया कि हिंदी का दायरा अब राष्ट्रीय से बढ़ कर अंतरराष्ट्रीय हो चुका है। विदेशी कंपनिय़ों ने भी हिंदी की ताकत के आगे मानो सिर झुका दिया है। क्योंकि मॉल में प्रवेश करते ही... इससे सस्ता कुछ नहीं... मनाईए त्योहार की खुशी ... दीजिए अपनों को उपहार... जैसे रोमन में लिखे वाक्य मुझे हिंदी की शक्ति का अहसास कराते। इसी के साथ हिंदी विरोध ही नहीं हिंदी के प्रति अंध व भावुक समर्थन की झलकियां भी गायब होने लगीं। क्योंकि अब किसी को ऐसा बताने या साबित करने की जरूरत ही नहीं होती। ऐसे नजारे देख कर मैं अक्सर सोच में पड़ जाता हूं कि क्या यह सब किसी सरकारी या गैर सरकारी प्रयास से संभव हुआ है। मेरे हिसाब से तो बिल्कुल नहीं, बल्कि यह हिंदी की अपनी ताकत है जिसके बूते वह खुद की उपयोगिता साबित कर पाई। यही वजह है कि आज बड़ी संख्या में दक्षिण मूल के युवक कहते सुने जाते हैं, “यार, गुड़गांव में कुछ महीने नौकरी करने के चलते मेरी हिंदी बढ़िया हो गई है” या किसी बांग्लाभाषी सज्जन को कहते सुनता हूं, “तुम्हारी हिंदी बिल्कुल दुरुस्त नहीं है, तुम्हें यदि राज्य के बाहर नौकरी मिली तो तुम क्या करोगे? कभी सोचा है।” चैनलों पर प्रसारित होने वाले कथित टैलेंट शो में चैंपियन बनने वाले अधिकांश सफल प्रतिभागियों का अहिंदी भाषी होना भी हिंदी प्रेमियों के लिए एक सुखद अहसास है।


सचमुच राष्ट्रभाषा हिंदी के मामले में यह बहुत ही अनुकूल व सुखद बदलाव है। जो कभी हिंदी प्रेमियों का सपना था। यानी, एक ऐसा माहौल जहां न हिंदी के पक्ष में बोलने की जरूरत पड़े या न विरोध सुनने की। लोग खुद ही इसके महत्व को समझें। अपने आस-पास जो हिंदी का प्रति बदलता हुआ माहौल आज हम देख रहे हैं, ज्यादा नहीं दो दशक पहले तक उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आज के परिवेश को देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी हिंदी अब ‘फुल स्पीड’ में है जो किसी के रोके कतई नहीं रुकने वाली...।

यह लेख श्री तारकेश कुमार ओझा जी द्वारा लिखा गया है। श्री ओझा जी पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और पेशे से पत्रकार हैं तथा वर्तमान में दैनिक जागरण से जुड़े हैं। इसके अलावा वे कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों के लिए भी स्वतंत्र रुप से लिखते रहते हैं।
संपर्कः  भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर (पं.बं.) पिनः 721301, जिला - पश्चिम मेदिनीपुर, दूरभाषः 09434453934

नोट: आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। Hindi e-Tools || हिंदी ई-टूल्स का इनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।